भारत में आज भी कई सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बच्चे सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे सभी विषय पढ़ रहे हैं। शिक्षा मंत्रालय के साल 2024-25 के आधिकारिक डेटा के मुताबिक देश के कुल 1,04,125 स्कूलों में एक ही शिक्षक सभी कक्षाओं एवं सभी विषयों को पढ़ा रहे हैं। यह आंकड़ा हमारे शिक्षा तंत्र की विफलता को दर्शाता ही नहीं रहा है बल्कि चिन्ताजनक स्थिति को बयां कर रहा है। ये आंकडे़ हमारे शैक्षणिक विकास पर एक गंभीर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। “शिक्षा किसी राष्ट्र की आत्मा होती है।” स्वामी विवेकानंद का यह वाक्य आज भारत की शिक्षा व्यवस्था पर एक कसक बनकर उभरता है। जब शिक्षा की आत्मा घायल होती है तो राष्ट्र का शरीर कभी स्वस्थ नहीं रह सकता।
शिक्षा मंत्रालय के ये हालिया आंकड़े बताते हैं कि एकल शिक्षक स्कूलों में करीब पौने चौंतीस लाख विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं। बताया जाता है कि आंध्र प्रदेश में ऐसे स्कूलों की संख्या सबसे ज्यादा थी, जबकि उसके बाद उत्तर प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक और लक्षद्वीप का स्थान है। एक तो हमारे देश में शिक्षा का बजट पहले ही बहुत कम है, फिर उस धन का सही उपयोग नहीं हो पाना एक भ्रष्टाचार ही है। इसमें दो राय नहीं कि प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के गिरते स्तर के मूल में हमारे नीति-नियंताओं की अनदेखी ही प्रमुख कारक है। आखिर हम अपने नौनिहालों को कैसी शिक्षा दे रहे हैं? आखिर उनके बेहतर भविष्य की हम कैसे उम्मीद करें? जाहिर बात है कि एक शिक्षक सामाजिक विषय, भाषा, विज्ञान, अंग्रेजी और गणित में माहिर नहीं हो सकता। एक शिक्षक छात्रों की हाजिरी दर्ज करेगा या पढ़ाई कराएगा? एकल शिक्षक स्कूलों का परिदृश्य भारत के विकास की पौल खोलने वाला है। भले ही एकल शिक्षक स्कूलों में पिछले वर्ष की तुलना में 6 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई हो, फिर इतनी बड़ी संख्या में ऐसे स्कूलों का होना हमारी शिक्षा व्यवस्था की बड़ी नाकामी को ही उजागर कर रहा है। यह स्थिति किसी एक आंकड़े की नहीं, बल्कि राष्ट्र के भविष्य की गहरी त्रासदी की तस्वीर है।
कल्पना कीजिए-एक शिक्षक जो प्रशासनिक काम भी करता है, मिड-डे मील की निगरानी भी करता है और साथ में सभी कक्षाओं को पढ़ाने की जिम्मेदारी भी निभाता है। क्या वह शिक्षक शिक्षक रह जाता है या व्यवस्था का बोझ उठाने वाला मज़दूर बन जाता है? इन बच्चों की शिक्षा कैसी होगी, जिनके लिए ज्ञान का एकमात्र द्वार ही थकान, उपेक्षा और तंगहाली से भरा है? यह संकट केवल ग्रामीण भारत तक सीमित नहीं है। शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में भी सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं जहाँ विषय विशेषज्ञों की कमी, प्रयोगशालाओं की अनुपस्थिति और शिक्षण संसाधनों का अभाव है। नई शिक्षा नीति 2020 समग्र शिक्षा की बात करती है, लेकिन जब आधारभूत ढाँचा ही अपूर्ण हो तो नीतियाँ केवल दस्तावेज़ बनकर रह जाती हैं। हम 2047 तक विकसित भारत की परिकल्पना कर रहे हैं, पर क्या एकल शिक्षक स्कूलों की यह स्थिति उस दिशा में कोई सार्थक कदम का संकेत है?यह विडंबना है कि भारत विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है, पर उसके बचपन की शिक्षा का यह हाल है। शिक्षा पर सरकारी व्यय जीडीपी का केवल 2.9 प्रतिशत है, जबकि विकसित देशों में यह 5 से 6 प्रतिशत तक है। जब शिक्षा ही निवेश नहीं बनेगी, तो विकास का आधार कहाँ से आएगा? समस्या केवल शिक्षक संख्या की नहीं, बल्कि शिक्षकों की भर्ती, प्रशिक्षण और संसाधनों की भी है। राज्यों में नियुक्ति प्रक्रियाएँ वर्षों तक लटकी रहती हैं, स्थानांतरण नीति अव्यवस्थित है, और जो शिक्षक हैं भी, उन्हें आधुनिक शिक्षा पद्धति, डिजिटल शिक्षण, नवाचार और नैतिक मूल्य आधारित शिक्षण के प्रशिक्षण से वंचित रखा गया है। यह स्थिति उस समय और अधिक विडंबनापूर्ण लगती है जब हम हर मंच पर “नया भारत”, “विकसित भारत” और “विश्वगुरु भारत” के नारे लगाते हैं। शिक्षा को राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में देखने की आवश्यकता है। रक्षा और स्वास्थ्य की तरह शिक्षा को भी सर्वाेच्च प्राथमिकता दी जाए।
शिक्षक भर्ती में पारदर्शिता और समयबद्ध प्रक्रिया सुनिश्चित हो, दूरस्थ क्षेत्रों के स्कूलों का समुचित समायोजन किया जाए, तकनीक के माध्यम से डिजिटल शिक्षा का विस्तार हो और शिक्षकों को केवल वेतनभोगी कर्मचारी नहीं बल्कि राष्ट्रनिर्माता के रूप में सम्मान मिले। महात्मा गांधी ने कहा था, “यदि हमें भारत को पुनः महान बनाना है, तो शिक्षा को पुनः मानवीय बनाना होगा।” आज शिक्षा केवल परीक्षा और नौकरी तक सीमित हो गई है, जबकि उसका उद्देश्य चरित्र निर्माण और विवेक जागरण होना चाहिए। यदि 34 लाख बच्चे एकल शिक्षक के भरोसे हैं, तो यह केवल प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक संवेदनहीनता का प्रमाण है। भारत तभी विकसित होगा जब हर बच्चा पढ़ेगा-सिर्फ स्कूल में नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में शिक्षित होगा। अन्यथा, एकल शिक्षक की यह पीड़ा आने वाले भारत की मौन त्रासदी बन जाएगी। शिक्षक दीपक की तरह होते हैं, वे स्वयं जलकर समाज को प्रकाश देते हैं। पर जब दीपक ही अकेला रह जाए, तो अंधकार स्वाभाविक है। अब समय है कि हम इस अंधकार को दूर करने का संकल्प लें, क्योंकि शिक्षा ही राष्ट्र का भविष्य है और शिक्षक उस भविष्य के निर्माता हैं।
सोचने वाली बात है कि एक स्कूल की सारी कक्षाओं को एक शिक्षक कैसे पढ़ाता होगा? छात्र-छात्राएं कैसी और कितनी शिक्षा ग्रहण कर पाते होंगे? शिक्षा का मतलब छात्रों का सर्वांगीण विकास होता है। उन्हें पढ़ाई के साथ पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी ज्ञान दिया जाना जरूरी होता है। लेकिन जब स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं होंगे तो किताबी पढ़ाई कैसी होगी, अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। स्कूल में सिर्फ पढ़ाई ही महत्वपूर्ण नहीं होती। बच्चों का शारीरिक विकास पूरी तरह हो, उसके लिए खेलकूल एवं सांस्कृतिक गतिविधियों एवं योग-व्यायाम जैसी कक्षाओं की सख्त जरूरत होती है। लेकिन जब शिक्षक ही पर्याप्त नहीं होंगे तो शिक्षा के साथ चलने वाली इन गतिविधियों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। निस्संदेह, हम छात्रों के बीमार भविष्य की बुनियाद ही रख रहे हैं और ऐसी बीमार बुनियाद पर खड़ा राष्ट्र कैसे स्वस्थ, सक्षम एवं उन्नत होगा?
शिक्षा के प्रति यह उपेक्षा हमारे सत्ताधीशों की संवेदनहीनता का भी पर्याय है। शिक्षकों की नियुक्ति में जिस बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामले विभिन्न राज्यों में सामने आए हैं, उससे शिक्षा विभाग की प्रदूषित कार्य संस्कृति का बोध होता है। आखिर क्या वजह है कि देश में प्रशिक्षित शिक्षकों की पर्याप्त संख्या होने के बावजूद स्कूलों में शिक्षकों की कमी बनी हुई है। यह स्थिति हमारे तंत्र की विफलता को ही उजागर करती है। एक समस्या यह भी है कि शिक्षक जटिल भौगोलिक स्थितियों वाले स्कूलों में काम करने से कतराते हैं। यदि इन स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति हो भी जाती है तो वे दुर्गम से सुगम स्कूलों में अपना तबादला ज्वाइन करने के तुरंत बाद करवा लेते हैं। जिसमें राजनीतिक हस्तक्षेप से लेकर विभागीय लेन-देन की भी शिकायत होती रहती है। यही वजह है कि शहरों व आसपास के इलाकों में स्थित स्कूलों में शिक्षकों की तैनाती जरूरत से ज्यादा भी देखी जाती है।
कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि सड़कों पर बेरोजगारों की लाइन लगी हैं और स्कूलों में शिक्षकों के लाखों पद खाली हैं। बताया जाता है कि माध्यमिक व प्राथमिक विद्यालयों में करीब साढ़े आठ लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। इसके बावजूद कि हमारे यहां प्रशिक्षित शिक्षकों की कोई कमी नहीं है। कहने को तो हमारे गाल बजाते नेता भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा युवाओं का देश कहते इतराते हैं, लेकिन इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि कुंठित होती युवा पीढ़ी के लिये उन्होंने क्या खास किया है? नौकरियों की भर्ती निकलती नहीं है। तीसरी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर देश में ऐसी त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों का होना देश के नीति-निर्माताओं एवं नायकों के लिये शर्म का विषय होना चाहिए।
- ललित गर्ग