लद्दाख, अपनी शांत और सौम्य संस्कृति के लिए पहचाना जाता है, लेकिन वहां अशांति और असंतोष पनपाने की कोशिश की गयी। इस परिदृश्य के केंद्र में हैं सोनम वांगचुक। यह वही नाम है जो कभी शिक्षा सुधार और पर्यावरणीय नवाचार का प्रतीक था, पर आज शांति और व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में देखा जा रहा है।
हम आपको बता दें कि सोनम वांगचुक की प्रारंभिक छवि प्रेरक रही है। SECMOL के माध्यम से उन्होंने शिक्षा को लद्दाख की स्थानीय आवश्यकताओं से जोड़ा और आइस स्तूपा जैसी तकनीक ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। लेकिन 2019 के बाद, जब लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिला, उनका रुख धीरे-धीरे बदलने लगा। जो व्यक्ति पहले नई दिल्ली का समर्थक माना जाता था, वही अब सत्ता के खिलाफ मोर्चा खोलने लगा।
सोनम वांगचुक ने लद्दाख की नाजुक पारिस्थितिकी के नाम पर बार-बार अनशन और आंदोलन किए। परंतु यह भी तथ्य है कि उनके आंदोलनों ने स्थानीय युवाओं में असंतोष को हवा दी। हाल ही में हुई हिंसा में चार निर्दोष जानें गईं, सैकड़ों घायल हुए और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचा। यह सब तब हुआ जब वांगचुक उपवास पर थे और उन्होंने कई बार “उकसाने वाले” बयान दिए। सवाल यह उठता है कि यदि आंदोलन केवल शांतिपूर्ण था, तो यह हिंसा क्यों और कैसे हुई?
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि सोनम वांगचुक के एनजीओ SECMOL और हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव्स पर विदेशी धन के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं। केंद्र सरकार ने उनके एनजीओ का FCRA लाइसेंस रद्द किया और CBI जांच शुरू की। यह तथ्य इस बात की ओर संकेत करता है कि उनके अभियानों को बाहरी शक्तियों से भी समर्थन मिल रहा था। जब राष्ट्रविरोधी तत्व देश की सीमाओं और संवेदनशील क्षेत्रों पर नजर गड़ाए हुए हों, तब इस तरह की विदेशी फंडिंग और संदिग्ध गतिविधियाँ गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा प्रश्न खड़े करती हैं।
देखा जाये तो लद्दाख का भौगोलिक महत्व किसी से छिपा नहीं। चीन और पाकिस्तान से घिरी इस संवेदनशील भूमि में किसी भी तरह की अस्थिरता सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करती है। ऐसे में यदि कोई नेता युवाओं को भड़काए, सरकारी संस्थानों पर हमला करवाए और हिंसा के बाद खुद को “शांति दूत” बताने लगे, तो उसकी मंशा पर संदेह स्वाभाविक है। सोनम वांगचुक का यह कहना कि “जेल में बंद वांगचुक, आज़ाद वांगचुक से ज्यादा खतरनाक होगा” दरअसल उनकी उसी मानसिकता को दर्शाता है जिसमें वह खुद को कानून से ऊपर मानने लगे थे। लोकतंत्र में असहमति का अधिकार है, परंतु जब असहमति हिंसा, विदेशी प्रभाव और संवैधानिक संस्थाओं को चुनौती देने का माध्यम बन जाए, तब उसे बर्दाश्त करना देशहित के खिलाफ होगा।
हम आपको यह भी बता दें कि कुछ राजनीतिक नेताओं ने सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी पर आलोचना की है, परंतु यह बयानबाजी भी राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित लगती है। वास्तविकता यह है कि केंद्र ने कई दौर की बातचीत का प्रस्ताव रखा था, लेकिन आंदोलनकारी समूह बार-बार शर्तें बदलते रहे। हिंसा के बाद यह साफ हो गया कि मामला केवल “छठी अनुसूची” या “राज्य का दर्जा” भर का नहीं, बल्कि व्यापक राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की रणनीति है।
देखा जाये तो सोनम वांगचुक की कहानी एक चेतावनी है कि कैसे एक समय का नवोन्मेषक और समाजसेवी धीरे-धीरे राजनीतिक महत्वाकांक्षा और विदेशी प्रभाव के चलते व्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है। लद्दाख की जनता को यह समझना होगा कि असली समाधान हिंसा और विदेशी फंडिंग से नहीं, बल्कि संवाद और संवैधानिक ढांचे के भीतर ही संभव है। आज जब लद्दाख की धरती पर शांति सबसे बड़ी आवश्यकता है, तो किसी भी व्यक्ति, चाहे उसकी पिछली छवि कितनी भी उज्ज्वल क्यों न रही हो, उसको कानून से ऊपर मानना राष्ट्र और क्षेत्र दोनों के लिए हानिकारक होगा। सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी इसी व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण का हिस्सा है। हम आपको यह भी बता दें कि सोनम वांगचुक को राजस्थान के जोधपुर कारागार में स्थानांतरित कर दिया गया है।
-नीरज कुमार दुबे