नेपाल में आज जिस तरह लोकतंत्र भरभराकर ढह गया उससे देश के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है। देखा जाये तो नेपाल की घटनाएं केवल राजनीतिक संकट नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की राजनीति को झकझोर देने वाली चेतावनी हैं। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने भारी जनाक्रोश और हिंसा के बीच इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल और कई वरिष्ठ नेताओं के घरों पर हमले हुए जिसके बाद उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। इसके अलावा, संसद, सर्वोच्च न्यायालय और सरकारी दफ्तरों को आग के हवाले कर दिया गया। सड़कों पर युवा प्रदर्शनकारियों ने न केवल मंत्रियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा बल्कि राजधानी काठमांडू तक को असुरक्षित बना दिया। यह दृश्य नेपाल की राजनीति और लोकतंत्र की दिशा पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
देखा जाये तो इस पूरे आंदोलन की पृष्ठभूमि में भ्रष्टाचार विरोधी जनाक्रोश और Gen-Z की अगुवाई वाला असंतोष है। सरकार द्वारा सोशल मीडिया प्रतिबंध ने आग में घी डालने का काम किया, जिसे अंततः वापस लेना पड़ा। लेकिन तब तक हालात बेकाबू हो चुके थे। लगभग 20 से ज्यादा लोगों की जान गई, सैंकड़ों घायल हुए और नेपाल की नाजुक राजनीतिक व्यवस्था फिर से हिल गई।
नेपाल का यह संकट भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया के लिए चिंता का विषय है। इसके चलते भारत-नेपाल सीमा पर सुरक्षा बढ़ानी पड़ी है। यदि अस्थिरता लंबी खिंचती है तो यह भारत की सुरक्षा और व्यापार दोनों को प्रभावित करेगी। यहां यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि हाल के वर्षों में नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ा है। लेकिन अब यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या काठमांडू की बीजिंग-नज़दीकी ने ही उसकी राजनीति को और उलझा दिया है? चीन की मदद से आर्थिक विकास की अपेक्षा थी, लेकिन जनता को न भ्रष्टाचार से मुक्ति मिली, न रोज़गार।
देखा जाये तो दक्षिण एशिया में नेपाल को अक्सर “नए लोकतंत्र” के रूप में देखा जाता था। यदि यहां संस्थाएँ भीड़तंत्र के सामने कमजोर साबित होती हैं, तो यह क्षेत्रीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा पर भी आघात है। जब संसद और सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्थाओं पर भीड़ हमला करती है, तो यह संकेत है कि जनविश्वास बुरी तरह टूटा है। सवाल यह है कि क्या नेपाल का लोकतंत्र इस बार फिर से खुद को पुनर्जीवित कर पाएगा, या हिंसा और अराजकता उसका स्थायी चेहरा बन जाएगी।
हम आपको याद दिला दें कि 2006 के बाद नेपाल ने खुद को हिंदू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित किया। इसलिए आज यह प्रश्न भी खड़ा हो रहा है कि क्या इस निर्णय से जनता का बड़ा वर्ग खुद को असुरक्षित महसूस करता है और हालिया असंतोष इसी से उपजा है? हालात को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि धर्मनिरपेक्ष पहचान ने नेपाल में गहरे सामाजिक द्वंद्व को जन्म दिया है। समाज का एक बड़ा हिस्सा इस बदलाव को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से विच्छेद मानता है।
साथ ही राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री का इस्तीफा एक समाधान नहीं, बल्कि अस्थायी मरहम है। जब तक राजनीतिक दल जनता को पारदर्शिता और जवाबदेही का भरोसा नहीं देंगे, तब तक संकट दोहराता रहेगा। देखा जाये तो नेपाल के युवाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि वे अब भ्रष्टाचार, परिवारवाद और सत्ता के दुरुपयोग को सहन नहीं करेंगे। लेकिन क्या यह ऊर्जा लोकतांत्रिक पुनर्निर्माण में लगेगी, या अराजकता और हिंसा में बदल जाएगी, यह नेपाल के भविष्य का निर्णायक प्रश्न है। इसके अलावा, चीन के साथ बढ़ती निकटता ने नेपाल को आर्थिक और सामरिक लाभ तो नहीं दिलाया, उल्टे नई निर्भरता और असंतोष पैदा कर दिया। भारत से दूरी और चीन पर भरोसा करना शायद नेपाल की कूटनीतिक भूल साबित हो रहा
बहरहाल, नेपाल का वर्तमान संकट लोकतंत्र की कमजोरी, भ्रष्टाचार की जकड़न और नेतृत्व की विफलता का सम्मिलित परिणाम है। दक्षिण एशिया के अन्य देशों के लिए यह एक चेतावनी है कि केवल संवैधानिक ढाँचे बनाना पर्याप्त नहीं, उन्हें जीवंत बनाना और जनता के भरोसे के लायक बनाना भी जरूरी है। नेपाल के सामने आज विकल्प है— क्या वह हिंसा और अराजकता में और डूबेगा, या इस संकट को एक अवसर मानकर अपने लोकतंत्र, पहचान और विदेश नीति की दिशा को नए सिरे से तय करेगा। यह चुनाव केवल नेपाल का नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई लोकतंत्रों के भविष्य की दिशा तय करेगा।
-नीरज कुमार दुबे