धर्म, संस्कृति, परंपरा व सामाजिक समरसता का अद्भुत संगम

 धर्म, संस्कृति, परंपरा व सामाजिक समरसता का अद्भुत संगम

पवित्र श्रावण मास चल रहा है, इस मास में देश के विभिन्न हिस्सों में शिवभक्त देवाधिदेव भगवान महादेव के ऊपर पवित्र नदियों का जल चढ़ाने के लिए सदियों से कांवड़ लेकर आते हैं। हालांकि कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उठता रहता है कि आखिर यह कांवड़ यात्रा क्या है, उन्होंने बेहद सरल शब्दों में यह समझना चाहिए कि कांवड़ यात्रा सनातन धर्मियों की केवल आस्था का ही नहीं बल्कि हमारे प्यारे देश भारत की समृद्धशाली धर्म-सांस्कृतिक, प्राचीन परंपरा और विरासत का एक अद्भुत प्रतीक है। वैसे भी सनातन धर्म-संस्कृति में पवित्र श्रावण मास की शिवरात्रि को देवाधिदेव भगवान महादेव की आराधना के लिए सबसे श्रेष्ठ दिन माना जाता है। इसलिए शिव भक्तों के द्वारा श्रावण मास की शिवरात्रि को भगवान शिव की पूजा-अर्चना करके कांवड़ से लाये पवित्र जल के माध्यम से जलाभिषेक करके इसको एक भव्य महापर्व के रूप में मनाया जाता है। हालांकि पूरे श्रावण मास में ही भगवान शिव का जलाभिषेक करने के लिए शिव भक्त दूर-दूर से पवित्र नदियों खासतौर पर गंगा के जल को सनातन धर्म की बेहद प्राचीन धर्म-संस्कृति व परंपराओं के अनुसार लाकर भगवान शिव के शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। 

देश-दुनिया में पवित्र नदियों के जल को शिव भक्तों के कंधे पर बांस की बनी कांवड़ के दोनों सिरों पर लटके हुए कलश में लेकर के आने की इस अद्भुत यात्रा को ही कांवड़ यात्रा कहते हैं। सदियों के बाद आज के दौर में शिव भक्त हर वर्ष तरह-तरह की कांवड़ लेकर आते हैं, जो लोगों को आकर्षित करने का कार्य करती हैं। कांवड़ यात्रा भगवान भोलेनाथ की पूजा अर्चना का एक धार्मिक अनुष्ठान मात्र ही नहीं है, बल्कि यह यात्रा प्राचीन धर्म-संस्कृति, परंपराओं व सामाजिक समरसता का एक विशाल अद्भुत संगम है। भगवान शिव के आशिर्वाद से हर वर्ष ही कांवड़ यात्रा से जहां एक तरफ तो लाखों लोगों को रोजगार मिलने से उनका परिवार पलता है, वहीं दूसरी तरफ यह भगवान शिव की पूजा-अर्चना करके उन्हें  खुश करने का एक बड़ा अवसर भक्तों को मिलता है। कांवड़ यात्रा लोगों को एक जुट रहकर के जल की एक-एक बूंद की अहमियत को बताते हुए प्रकृति की पूजा के बारे में बताती है, वहीं सनातन धर्मियों को बड़े पैमाने पर इकट्ठा करके जातियों के जहरीले बंधनों को तोड़कर के सनातनियों को एक सूत्र में पिरोने का एक बहुत बड़ा संदेश भी देती है। 

कांवड़ यात्रा एक कठिन तपस्या भी है, जिसमें भक्त पवित्र नदियों से जल लेकर के भगवान शिव को चढ़ाते हैं। पवित्र नदियों का जल लेकर के भगवान शिव पर जल चढ़ाने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। यहां तक की हमारे पुराणों और ग्रंथों में भी कांवड़ यात्रा से संबंधित तथ्य मिलते हैं। शिव भक्त कांवड़िए कांवड़ अलग-अलग तरह की कांवड़ लेकर आते हैं। बहुत सारे भक्त सामान्य कांवड़ लेकर पैदल चलते हैं जिसमें आवश्यकताओं अनुसार भक्त विश्राम करते हुए भगवान शिव का जलाभिषेक करने के लिए गंगा जल लाते हैं।


वहीं डाक कांवड़ में शिवभक्त गंगा जल लेकर लगातार दौड़ लगाने की कठिन तपस्या करते हुए, शिव-शंभु का जलाभिषेक करते हैं, यह कांवड़ आजकल बहुत ज्यादा प्रचलन में है। 


वहीं खड़ी कांवड़ में कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता है, विश्राम करते समय भी दूसरा साथी कांवड़ कंधों पर रखता है।


वहीं कुछ शिव भक्त बैठी कांवड़ लेकर आते जिसमें वह कांवड़ पास रखकर के बैठकर आराम कर सकते हैं।


वहीं कुछ भक्त दंडी कांवड़ लेकर आते हैं जो सबसे कठिन होती है, इसमें कांवड़िया दंडवत प्रणाम करते हुए निशान लगाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं, यह सबसे कठिन प्रकार की कांवड़ यात्रा होती है।


सदियों पहले कांवड़ यात्रा की शुरुआत कैसे हुई, इसके संदर्भ में कई पौराणिक मान्यताएं हैं, माना जाता है कि समुद्र मंथन में निकले हलाहल विष को भगवान शिव ने जब पीकर अपने कंठ में इकट्ठा कर लिया था, तो देवताओं ने भगवान शिव का जलाभिषेक करना शुरू कर दिया था।


वहीं कुछ पौराणिक कथाओं के मतानुसार रावण को ही पहला कांवड़िया माना जाता है। कहा जाता है कि भगवान शिव समुद्र मंथन से निकले हलाहल विष को पीकर जब ताप से बेहद व्याकुल हो गए थे, तब उन्होंने अपने अन्नय भक्त लंका नरेश रावण को पुकारा था, शिव भक्त रावण ने तत्काल उपस्थित होकर भगवान शिव के हालात देखकर के उनका जलाभिषेक करना शुरू कर दिया था। जिससे भगवान शिव को शांति मिली थी। 


यह भी कहा जाता है कि भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा से जल लाकर के जब पुरा महादेव मंदिर बागपत में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था, तब से ही कांवड़ यात्रा की शुरूआत हुई है। 


वहीं रामायण में उल्लेख मिलता है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने अपने नेत्रहीन माता-पिता को बांस की डंडे के दोनों ओर बंधी टोकरियों में बैठाकर गंगा स्नान व तीर्थाटन करवाने की यात्रा शुरू की थी, तब से ही कांवड़ यात्रा की शुरूआत हुई।


हांलांकि आज भी कांवड़ यात्रा में चंद विधर्मी हुड़दंगियों को छोड़ दिया जाए तो यह एक बहुत ही कठिन जप-तप वाली तपस्या है, जोकि शिव भक्त कांवड़ियों के अपने आराध्य भगवान शिव पर अटूट विश्वास के दम पर ही पूर्ण होती है। शिव भक्तों की कांवड़ भगवान शिव के प्रति आस्था अटूट समर्पण और भक्ति का प्रतीक है। कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ को कंधे पर रखकर के पैदल चलते हुए शिव भक्त तरह-तरह के शारीरिक कष्ट सहते हैं, फिर भी शिव भक्तों की भगवान शिव के प्रति आस्था जरा सी भी कम नहीं होती है।


- दीपक कुमार त्यागी

Leave a Reply

Required fields are marked *