पापा की परी या परा हो या दादी-नानी के नाती-पोतें, दादी-नानी की कहानियां या लोरियां आज बीते जमाने की बात हो गई है। दादी-नानी की कहानियां व लोरियों में सकारात्मक संदेश छिपा होता था। यह कोई मनोरंजन का माध्यम ना होकर बच्चों के मानसिक, पारिवारिक व सामाजिक समझ और जिज्ञासु प्रवृति को बढ़ावा देती थी। बच्चों में क्यूरिओसिटी बढ़ाने के साथ ही सार्थक अंत होने से बच्चों को कोई ना कोई संदेश अवश्य मिलता था। यह कोई हमारे देश की ही बात नहीं थी अपितु समूचे विष्व में दादी-नानी की कहानियों व लोरियों से बच्चों को एकाग्रता, जिज्ञासु प्रवृति, सोच व कल्पना शक्ति को बढ़ावा देने के साथ ही संवेदनशीलता और संबंधों की अहमता को समझाने में सहायक होती थी। अब वैश्विक अध्ययनों से यह साफ हो गया है कि इसके नकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। हांलाकि यह जेनरेशन जेड यानी की 1996 से 2010 की पीढ़ी इस तथ्य को अभी समझ नहीं पा रही है पर वैश्विक अध्ययनों ने यह साफ कर दिया है कि हालात यही रहे तो आने वाली पीढ़ी से संवेदनशीलता और अच्छे-बुरे की बात करना कोई मायने नहीं रखेगी। दरअसल आज के बच्चों की दुनिया दादी-नानी की कहानियां या लोरियों के स्थान पर मोबाइल और टीवी स्क्रीन पर खुराफाती, हिंसात्मक, नकारात्मक, नित नए दुश्चक्र रचते और संबंधों को तार तार करते सिरियलों या इसी तरह के एपिसोड़ से दो चार हो रही है। आज के बच्चों में हिंसा, बदले की भावना, इच्छा, मिल बांटने के स्थान पर एकलखोरी और ना जाने कितनी ही नकारात्मकता मोबाइल और टीवी स्क्रीन पर चलने वाले सिरियलों, एपिसोड़ों और प्रसारित होने वाले गेम्स के माध्यम से परोसी जा रही है। इसके परिणाम भी सामने आ रहे हैं। बच्चों में रेवेन्ज की भावना कूट कूट कर भरती जा रही है तो सहनशक्ति तो कोई मायने ही नहीं रखती। रिश्ते तार तार हो रहे हैं यह एक अन्य बात है। जेन जेड़ पीढ़ी की मानसिकता का असर आने वाली पीढ़ी पर दिखाई देने लगी है। जेन जेड बिना काम की प्रतिस्पर्धा में तो आगे हैं पर सामाजिक समरसता की भावना से दूर होती जा रही है। अपने में सिमटती यह पीढ़ी देश और समाज को सकारात्मकता क्या दे पायेगी यह सवालों के घेरे में आने लगा है।
दरअसल दादी-नानी की कहानियां भले ही उनमें से कुछ कपोल कल्पना के आधार पर हो या फिर राजारानी की कहानियां हो बच्चों के कोमल मन को एक संदेष देती थी। इसके साथ ही उस जमाने में बच्चों को पढ़ने-पढ़ाने की आदत ड़ाली जाती थी। लाइब्रेरी का कांसेप्ट तो आज बदल ही चुका है। आज लाईब्रेरी का अर्थ किराये के स्थान पर बनी केबिननुमा दढ़बे में अपने घर से ले जाई गई किताबों को रटने तक सीमित हो गया है। मौहल्लों में पांच-सात घरों की दूरी पर ही इस तरह की लाइब्रेरी मिल जाएगी। जबकि एक जमाने में लाइब्रेरी के मायने ज्ञानवर्द्धक पुस्तकें, समाचार पत्र-पत्रिकाएं आदि को वहां बैठकर पढना व आवश्यकता होने पर लाइब्रेरी की सदस्यता प्राप्त कर पुस्तक आदि घर लाकर पढ़ना होता था। आज तो पढ़ने-पढ़ाने की आदत ही समाप्त होती जा रही है। एक समय था जब वार्षिक परीक्षाओं के बाद बारी बारी से दादी-नानी के घर धमाचौकड़ी होती थी। मजे की बात की सभी मिजाज के हम-उम्र बच्चें होने से आपसी तालमेल की शिक्षा भी मिल जाती थी। फिर रात को दादी-नानी के साथ सोने और सोने से पहले कहानियां सुनने का सिलसिला चलता था। इससे कोमल मन को अलग तरह का ही संदेश मिलता था। चंदामामा, चंपक सहित बहुत सी बच्चों की पत्रिकाएं घर में होना और बच्चों के पास होना गौरव की बात माना जाता था। आपस में बांट कर बारी बारी से पढ़ने की हौड़ लगती थी। खैर यह बीते जमाने की बात हो गई है। अब तो गुगल गुरु ने लगभग सभी की पढ़ने पढ़ाने की आदत को ही बदल कर रख दिया है।
डिजिटल युग के इस दौर में सोशल मीडिया के माध्यम समूचे समाज को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। शहरीकरण के साथ ही संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार ने ले लिया है तो समय की कमी, अंधी प्रतिस्पर्धा, माता-पिता व परिजनों का लिखने पढ़ने से परहेज, बच्चों को प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में ही जुटा देने और होमवर्क और ट्यूशन कल्चर पढ़ाई की दशा और दिशा को ही बदल दिया है। कोरोना के बाद तो जिस तरह से मोबाइल को ही अध्ययन का माध्यम बनाया गया उससे भी बच्चे मोबाइल के दास हो गए। अब तो स्कूलों में भी सभी संदेश मोबाइल पर ही देने का चलन चल गया है और इससे स्कूल की डायरी का भी कोई महत्व नहीं रह गया है। ऐसे में मोबाइल ही माध्यम हो जाने से बच्चों का मोबाइल गेम्स से लेकर सोशल मीडिया के माध्यमों द्वारा बालमन को सीधे सीधे प्रभावित किया जा रहा है।
मनोविज्ञानियों और शिक्षा-समाज के क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों को दायित्व इससे और अधिक बढ़ गया है। एक समय था जब बच्चों को कोर्स में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के इतर मानसिक और चारित्रिक विकास वाले साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता था। आज पंचतंत्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियां जेन जेड पीड़ी भी नहीं जानती होगी तो फिर देश विदेश के अन्य उत्कृष्ट साहित्य को पढ़ने पढ़ाने की तो दूर की बात होगी। देखा जाये तो सोशल मीडिया, इंटरनेटी आभासी दुनिया, एकल और प्रतिस्पर्धात्मक पारिवारिक स्थिति से बालपन बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। अवकाश के दिनों में दादा-दादी या नाना नानी के पारिवारिक माहौल के स्थान पर किसी पिकनिक या पर्यटन स्थल पर जाना प्राथमिकता हो गया है। ऐसे में सामाजिक पारिवारिक संबंधों की गहनता की बात नहीं की जा सकती। मानवीय संवेदनायुक्त नई पीढ़ी के लिए अभी से गंभीर सोच की आवश्यकता है। सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों या स्क्रीन पर परोसी जा रही सामग्री में बदलाव लाना होगा ताकि नई पीढ़ी को संस्कारित किया जा सके।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा