भारत की आर्थिक चेतना का जो नया अध्याय इस समय लिखा जा रहा है, उसकी सबसे सशक्त पंक्ति युवा भारत की कलम से निकल रही है। बीते वर्षों में आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में जो परिवर्तन देखने को मिले हैं, वे महज सरकारी योजनाओं या वैश्विक वित्तीय संस्थानों की रिपोर्टों के निष्कर्ष नहीं हैं, बल्कि भारत के गांवों, कस्बों और छोटे शहरों से निकलते उस नए युवा भारत के प्रमाण हैं जो अब सिर्फ नौकरी ढूंढने वाला नहीं, बल्कि निवेश और उत्पादन का भागीदार बन चुका है। यह बदलाव जितना अदृश्य था, उतना ही व्यापक हो चुका है।
एक समय था जब भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर विकास दर 3.5 से 4 प्रतिशत के बीच झूलती थी और इस स्थिरता को ही स्थायित्व मान लिया जाता था। 1950 से 1980 के दौर के लिए अर्थशास्त्री राजकृष्ण ने ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ शब्द प्रयोग किया। बाद के वर्षों में आशीष बोस ने ‘बीमारू’ शब्द गढ़ा, जिससे बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की विकासहीनता को रेखांकित किया गया। लेकिन 2025 के इस कालखंड में यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि जिन राज्यों को कल तक बीमारू कहा गया, आज वही आर्थिक परिवर्तन की नई इबारत लिख रहे हैं।
वर्ष 1991 में जब भारत ने उदारीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया था, तभी से यह परिवर्तन धीरे-धीरे आकार लेने लगा था। किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि उस परिवर्तन का पूरा फल भारतीय जनमानस तक पहुंचने में समय लगा। किंतु अब स्थिति बदल चुकी है। भारत के शेयर बाजार को लेकर जितना उत्साह आज छोटे शहरों और ग्रामीण अंचलों में देखने को मिल रहा है, वह इस बात का प्रमाण है कि देश की आर्थिक यात्रा अब कुछ महानगरों तक सीमित नहीं है। और इस समावेशी आर्थिक चेतना का नेतृत्व कर रहे हैं देश के युवा।
मॉर्गन स्टैनली जैसी वैश्विक वित्तीय संस्था का यह आकलन कि यदि स्थितियां अनुकूल रहीं, तो भारत का प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स अगले 12 महीनों में एक लाख के आंकड़े को पार कर सकता है, केवल बाजार का भविष्यवाणीय अनुमान नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में आ रहे गहरे और बुनियादी बदलावों का संकेत भी है। इस आकलन के पीछे जिस प्रवृत्ति ने सबसे अधिक प्रभाव डाला है, वह है—निवेश के प्रति युवाओं की रुचि, जागरूकता और भागीदारी।
यदि हालिया वर्षों में निवेशक संख्या का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह बदलाव केवल महाराष्ट्र, गुजरात या कर्नाटक जैसे पारंपरिक औद्योगिक राज्यों तक सीमित नहीं है। बल्कि अब उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार जैसे राज्य इस दौड़ में शामिल ही नहीं, बल्कि कई मायनों में अग्रणी भी हो चले हैं।
वित्तीय वर्ष 2025 के उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि भारत में सबसे अधिक डीमैट खाताधारक महाराष्ट्र में हैं, जिसकी संख्या लगभग 186 लाख है। किंतु इसके बाद दूसरे स्थान पर है उत्तर प्रदेश, जहां यह संख्या 130 लाख के आसपास पहुंच गई है। विशेष बात यह है कि जबकि महाराष्ट्र ने पांच वर्षों में लगभग 21 गुना वृद्धि दर्ज की, उत्तर प्रदेश ने 47 गुना की दर से यह वृद्धि हासिल की है। इससे यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं कि महाराष्ट्र जैसे राज्य जहां निवेश स्थिरता की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश जैसे राज्य अब निवेशक वर्ग के लिए नए अवसरों का द्वार खोल रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में जिस प्रकार योगी आदित्यनाथ सरकार ने कानून व्यवस्था, आधारभूत ढांचा और निवेश समर्थक नीतियों पर बल दिया है, उसका सीधा असर राज्य की आर्थिक चेतना पर पड़ा है। एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य अब सिर्फ भाषणों तक सीमित नहीं रह गया, बल्कि राज्य के युवाओं की आकांक्षा का हिस्सा बन चुका है। आज का पूर्वांचल, बुंदेलखंड और तराई क्षेत्र भी बाजार की भाषा समझने लगा है।
इसी क्रम में राजस्थान की स्थिति भी उल्लेखनीय है, जहां पांच वर्षों में 46 गुना तक निवेशकों की संख्या में वृद्धि हुई है। पर्यटन और खनिज संपदा पर आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस राज्य में अब युवाओं ने बाजार को भी संभावनाओं का क्षेत्र मानना शुरू कर दिया है। किंतु जो राज्य सबसे अधिक चौंकाता है, वह है—बिहार।
एक समय लालटेन की राजनीति से पहचान रखने वाला बिहार अब लैपटॉप और लिक्विडिटी की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। पांच वर्षों पहले जहां बिहार में केवल सात लाख लोग शेयर बाजार से जुड़े थे, वहीं अब यह संख्या 52 लाख को पार कर चुकी है। यह 68 गुना वृद्धि न केवल देश की सबसे तेज़ आर्थिक भागीदारी को दर्शाती है, बल्कि उस मानसिक और सामाजिक बदलाव का भी प्रतीक है जो इस राज्य की जनता में आया है।
बिहार में हाल के वर्षों में आयोजित औद्योगिक संवाद और निवेशक समागमों में देश की 55 से अधिक आईटी और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों ने भाग लिया है। ये कंपनियाँ ड्रोन, डेटा सेंटर, सोलर उपकरण और सॉफ्टवेयर सेवाओं में रुचि दिखा रही हैं। राज्य सरकार द्वारा निवेशकों के लिए 70 प्रतिशत तक प्रोत्साहन राशि, सिंगल विंडो क्लीयरेंस की व्यवस्था और उद्योगिक संवाद में तत्परता इस बदलाव को और मजबूती दे रहे हैं। यह बदलाव केवल योजनाओं या घोषणाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि जमीन पर दिखने लगा है।
आज बिहार का युवा केवल प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में ही नहीं लगा, बल्कि वह SIP, म्यूचुअल फंड और स्टॉक मार्केट के उतार-चढ़ाव को भी समझ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों तक Zerodha, Groww और Upstox जैसे प्लेटफॉर्म्स की पहुंच, और साथ में स्मार्टफोन व इंटरनेट की उपलब्धता ने वित्तीय जागरूकता की सीमा को तोड़ दिया है। अब समस्तीपुर का एक छात्र SIP की शुरुआत करता है, दरभंगा की गृहिणी म्यूचुअल फंड में निवेश करती है, और पूर्णिया का एक किसान अपने बेटे के लिए टैक्स प्लानिंग सीख रहा है।
यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ। इसके पीछे शिक्षा तक पहुंच, इंटरनेट और मोबाइल क्रांति, सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी का लोकतंत्रीकरण, और आर्थिक आत्मनिर्भरता की बढ़ती चाहत का योगदान है। अब सरकारी नौकरी को ही जीवन की उपलब्धि मानने वाली सोच में परिवर्तन आया है। युवाओं में अब जोखिम उठाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, और निवेश को सिर्फ अमीरों का खेल मानने का भ्रम टूट चुका है।
इस समूचे परिदृश्य में यह स्वीकार करना आवश्यक है कि भारत की आर्थिक उन्नति केवल जीडीपी, सेंसेक्स या विदेशी निवेश से नहीं मापी जा सकती। वास्तविक बदलाव तब स्थायी होगा जब देश के हर हिस्से को इसमें समान भागीदारी का अवसर मिलेगा।
भारत यदि विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बनने की आकांक्षा रखता है, तो उसे अपने आर्थिक मॉडल को महानगरों से निकालकर दरभंगा, आरा, प्रयागराज और अजमेर जैसे शहरों की गलियों तक ले जाना होगा। यह नई आर्थिक कहानी केवल आंकड़ों की नहीं, आत्मविश्वास की भी कहानी है।
सेंसेक्स कब एक लाख के आंकड़े को पार करेगा, इस पर विचार हो सकते हैं, बहस हो सकती है। लेकिन यदि बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के गांवों में आर्थिक आत्मनिर्भरता की लौ जल उठी है, तो यही असली आर्थिक क्रांति है। और यदि यह यात्रा युवा नेतृत्व में आगे बढ़ रही है, तो यह भी स्पष्ट है कि जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर ज़माना चलता है।
- संजीव कुमार मिश्र,