Modi के बहाने और भागवत कथा के मायने

Modi के बहाने और भागवत कथा के मायने

एक तरफ जहां देश का गोदी मीडिया खासकर टेलीविजन ऑपरेशन सिंदूर के बाद सेना की बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफों के पुल बांधने में लगा है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के भीतर बैठे कई नेता संघ प्रमुख मोहन भागवत की ओर टकटकी लगाये बैठे हैं, कि वे कब बोलेंगे। वे कम बोलते हैं। पर उनके बोलने से भाजपा हिल जाती है। और जब नहीं बोलते तो उनकी खामोशी बोलती है। हाल ही में संघ प्रमुख ने पहलगाम आतंकी हमले के बाद हुए ऑपरेशन सिंदूर के संदर्भ में जो प्रतिक्रिया दी है, उससे मोदी खेमा निराश है। नागपुर में कार्यकर्ता विकास वर्ग द्वितीय के समापन समारोह को संबोधित करते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पहलगाम हमले के बाद के घटनाक्रम पर सेना व सरकार की सराहना की। लेकिन अपनी ही पार्टी का नेता होने के बावजूद भागवत ने न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज़िक्र किया, न ही ऑपरेशन सिंदूर या सीज़फायर का, और हिंदू समाज की जगह केवल समाज शब्द का प्रयोग किया। यह चुप्पी और शब्दों का सावधानीपूर्वक चयन कई सवाल खड़े करता है। मोहन को मोदी का नाम लेने से परहेज क्यों। कारण आगे समझ में आयेंगे। लेकिन पहले बात अनुशासन की। संघ के पूर्व सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर (गुरुजी) कहते थे, व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है, विचार महत्वपूर्ण है। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी संघ से बड़े ही नहीं बहुत बड़े होते गए। इसलिए भागवत की नाराजगी को समझना जरूरी है। भागवत ने कहा कि, पहलगाम की कायरतापूर्ण आतंकवादी घटना के पश्चात पाक प्रायोजित आतंकवादियों एवं उनके समर्थक पारितंत्र पर की जा रही निर्णायक कार्रवाई के लिए भारत सरकार के नेतृत्व और सैन्यबलों का हार्दिक अभिनंदन। उन्होंने राजनीतिक दलों व समाज की भी प्रशंसा की, पर साथ ही कहा कि इससे समस्या तो खत्म हुई नहीं। विपक्ष से लेकर रक्षा-राजनय और मीडिया विशेषज्ञ सरकार से सवाल पूछ रहे हैं। कई तो इसे मोदी सरकार का ब्लंडर भी कहने लगे हैं। दुनिया कुछ भी कहे, संघ प्रमुख का कहना मायने रखता है। और तब बहुत रखेगा, जब संघ समय पर निर्णय भी ले। मणिपुर की घटना के एक साल बाद संघ प्रमुख की प्रतिक्रिया आयी और अबतक हल नहीं निकला। समस्या खत्म नहीं हुई: मोहन भागवत भागवत के इस बयान को केवल ऑफ-हैंड टिप्पणी नहीं माना जा सकता। उनका यह कहना कि संकट बरकरार है और समस्या का समाधान नहीं हुआ, 9 मई 2025 को ऑपरेशन सिंदूर शुरू होने के बाद भागवत ने देशवासियों से सेना और सरकार का समर्थन करने की अपील की थी, लेकिन अचानक हुए युद्धविराम ने संघ को असमंजस में डाल दिया। दशकों से भाजपा और संघ परिवार कांग्रेस पर आरोप लगाते रहे हैं कि उसने 1971 सहित कई मौकों पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) पर कब्जा नहीं किया। तो अब जबकि मोदी सरकार के समय सेना पाकिस्तान को घुटनों पर ला रही थी, तो युद्धविराम क्यों हुआ? विपक्ष के सवाल और संघ का मौन भागवत का बयान ऐसे समय आया है जब विपक्ष ऑपरेशन सिंदूर पर संसद के विशेष सत्र की मांग कर रहा है। विपक्ष के प्रमुख सवाल हैं: - विदेश मंत्री ने ऑपरेशन शुरू होने पर पाकिस्तान को क्यों सूचित किया? - जब सेना जीत रही थी, तो युद्धविराम क्यों? - सीज़फायर की घोषणा अमेरिका ने क्यों की? - ट्रंप ने 14 बार मध्यस्थता की बात कही, पर मोदी ने इसका खंडन क्यों नहीं किया? - कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा रखने की बजाय अमेरिकी मध्यस्थता क्यों मानी गई? - क्या ऑपरेशन में राफेल समेत पांच विमान गिरे, जैसा कि दावा किया गया? भारतीय सेना के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने एक साक्षात्कार में कहा कि विमानों की संख्या से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वे क्यों गिरे। सरकार इन सवालों का जवाब देने से बच रही है। सवाल यह भी है कि जब पीएम मोदी ने 80 से अधिक देशों का दौरा किया, तो इस युद्ध में केवल दो-तीन देशों को छोड़कर कोई साथ क्यों नहीं आया? क्या यह विदेश नीति की नाकामी नहीं? इन मुद्दों पर भागवत का मौन बहुत कुछ कहता है। भागवत का समाज पर जोर भागवत ने इस बार अपने बयान में हिंदू समाज के बजाय समाज शब्द का इस्तेमाल किया। वे पहले भी कह चुके हैं कि "मुसलमान भी हिंदू हैं और समाज का हिस्सा हैं। पहलगाम हमले में आतंकियों द्वारा धर्म पूछकर हत्या के नैरेटिव ने सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश की थी। लेकिन कश्मीरी मुसलमानों ने आतंकवाद के खिलाफ रैलियां निकालकर इस नैरेटिव को ध्वस्त कर दिया। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी ने पहले मुस्लिम दुकानदारों को नेमप्लेट लगाने के आदेश दिये, तो फिर महाकुम्भ में उनके प्रवेश पर रोक भी लगायी। हालांकि मोदी-योगी के नारे, उसी संगम में तब डूब गए, जब कुम्भ के हजारों भगदड़ प्रभावितों को प्रयागराज के मुसलमानों ने अपने घरों में शरण देकर गंगा-जमुनी तहज़ीब का उदाहरण पेश किया। यूपी में मुसलमानों के खिलाफ बुलडोजर कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट को रोक लगानी पड़ी। मस्जिदों पर तिरपाल, मंदिर खोजने, और औरंगजेब की कब्र खोदने जैसे मुद्दों पर संघ के भैयाजी जोशी को कहना पड़ा कि औरंगजेब यहीं पैदा हुआ और उसकी कब्र यहीं रहेगी। संघ का मोदी से मतभेद संघ का मतभेद मोदी या भाजपा से नहीं मोदी की कार्यशैली से है। 2024 के चुनाव में भाजपा ने 400 पार का नारा दिया और विपक्ष को दुश्मन की तरह देखते हुए आक्रामक प्रचार किया। मोदी ने मंगलसूत्र, घुसपैठिए और बंटोगे तो कटोगे जैसे सांप्रदायिक बयान दिए। भागवत समझाते रहे कि विपक्ष का भी सम्मान बराबर है। यह भी कहा कि हिंदुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है और मुसलमान और ईसाई भी समाज का हिस्सा हैं, लेकिन उनकी आवाजें मोदी के आक्रामक प्रचार के शोर में नक्कारखाने में तूती की तरह दब गयीं। राम मंदिर के उद्घाटन के मौके पर भी संघ प्रमुख ने राम की मर्यादा और उनके चरित्र को अपनाने की सीख दी थी। भागवत ने एक बार कहा था, एक सच्चा सेवक अहंकारी नहीं होता। संघ अपने शीर्ष नेता को मूल्यों, मर्यादा और अनुशासन की याद दिलाता रहा और मोदी सरकार अपने मन की बात करती रही। उल्टे मोदी ने 11 साल में पार्टी को स्व-केंद्रित बनाया, पार्टी की बजाय मोदी की गारंटी को बढ़ावा दिया। और इसे चुनाव जीतने के लिए जरूरी बताकर संघ का मुंह बंद रखा। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जब पूर्ण बहुमत नहीं मिला, तभी से संघ भाजपा के संगठन को मजबूत करने पर जोर दे रहा है। एक और बात संघ को चुभ गई– पिछले लोकसभा चुनाव नतीजों से पहले ही भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यह कहकर सनसनी मचा दी कि भाजपा अब बड़ी और सक्षम हो चुकी है, उसे संघ के निर्देश की आवश्यकता नहीं। लोकसभा चुनाव में 240 सीटों के साथ अल्पमत में आये प्रधानमंत्री मोदी ने बिना भाजपा कार्यकारिणी की बैठक बुलाये या संघ से मशवरा किए बगैर एनडीए की बैठक बुलाकर खुद को फिर से नेता घोषित कर लिया। इसीलिए अब संघ अपने विश्वासपात्र को अध्यक्ष बनाना चाहता है, जबकि मोदी-शाह 2029 के लिए सरकार के साथ पार्टी पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं। मोदी का दोहरा रवैया और संघ के विचारों पर प्रहार मोदी ने पहले तो बंटोगे तो कटोगे जैसे सांप्रदायिक नारे दिए, लेकिन ईद पर सौगात ए मोदी भेजकर भाजपा समर्थकों को असमंजस में डाल दिया। यही नहीं, जो संघ सावरकर के हिंदू एकता के बुनियादी विचारों पर खड़ा है और हमेशा जाति प्रथा के साथ आरक्षण का भी विरोधी रहा है, भागवत व स्वयं मोदी भी इसके खिलाफ बोल चुके हैं, उन्हीं मोदी ने अचानक अगली जनगणना में जातियों की गणना कराने की राहुल गांधी की मांग को मंजूरी दे दी, तो समूचा संघ परिवार हिल गया। यह सावरकर समेत समूचे संघ की सोच पर हमला था। भागवत भले ही यह कहते हों कि मुसलमान भी हिंदू हैं और समाज का हिस्सा हैं, उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि वे अब हिंदू एकता की बात नहीं करते। सवाल है कि जाति जनगणना के मोदी के फैसले के बाद संघ कार्यकर्ता अब शाखाओं में क्या कहेंगे। भाजपा अध्यक्ष पद का विवाद और 75 साल का नियम संघ और मोदी-शाह के बीच एक अहम पेंच फंसा है - भाजपा के पार्टी अध्यक्ष पद के चुनाव का। यह मतभेद एक साल से जारी है। मार्च 2025 में मोदी नागपुर गए, और 30 मई को भागवत दिल्ली में मोदी से मिले, लेकिन मसला अनसुलझा रहा। मोदी ने 75 साल की उम्र में नेताओं को रिटायर करने का नियम बनाया, आडवाणी, जोशी जैसे नेता रिटायर कर भी दिये गए। अब सितंबर 2025 में मोदी खुद 75 साल के होंगे। पार्टी नेता चाहते हैं कि यह नियम उन पर भी लागू हो। लेकिन वो पद छोड़ने के मूड में नहीं। सूत्रों के मुताबिक मोदी खेमे ने भागवत को यह समझाने की कोशिश की है, कि उनकी सरकार संघ के सारे एजेंडे को पूरा कर चुकी है। बस एक पाक प्रायजित आतंकवाद का मसला बाकी है, इसलिए उन्हें सरकार के साथ पार्टी का भी पूरा नियंत्रण मिलना जरूरी है। लेकिन चूंकि पार्टी अध्यक्ष ही पार्टी के अगले प्रधानमंत्री का नाम तय करेगा, इसलिए मोदी अपनी पसंद का अध्यक्ष चुनना चाहते हैं, पर संघ अब मोदी को मौका देने के मूड में नहीं है। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष का चुनाव अहम है। पार्टी अध्यक्ष तय होते ही यह भी तय हो जाएगा कि आखिरकार किसकी चली और आगे कौन बनेगा बादशाह।

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