अमरावती मॉडल देगा दुनिया के देशों को नई दिशा

अमरावती मॉडल देगा दुनिया के देशों को नई दिशा

ग्रीन एनर्जी को बढ़ावा देने के लिए जहां दुनिया के देशों में टुकड़ो-टुकड़ों में काम हो रहा है वहीं आंध्रप्रदेश की नई राजधानी अमरावती को पूरी तरह से ग्रीन एनर्जी से संचालित शहर बनाने की दिशा में मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने काम भी शुरु कर दिया है। अमरावती को पूरी तरह से ग्रीन एनर्जी से संचालित शहर बनाने में करीब करीब 65 हजार करोड़ रुपए की लागत आयेगी और सोलर, पवन और जल विद्युत पर आधारित इस परियोजना में अमरावती में उपयोग आने वाली सारी बिजली रिन्यूवल एनर्जी स्रोत से ही प्राप्त होगी। सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाली जीवाश्म ऊर्जा का अमरावती में नामोनिशान नहीं होगा। अपने आप में यह दुनिया के लिए ग्रीन एनर्जी के सपने को अमली जामा पहनाने की बड़ी, महत्वाकांक्षी और दुनिया के देशों के लिए प्रेरणीय पहल मानी जानी चाहिए। कोई इसे इतिहास रचने की बात करता है तो कोई ग्रीन एनर्जी के क्षेत्र में बड़ी और रचनात्मक पहल के रुप में देख रहे हैं। कहा जाए तो दुनिया के देश जिस तरह से ग्रीन एनर्जी के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं और जिस तरह से बड़े बड़े शिखर सम्मेलनों के साझा घोषणा पत्रों में घोषणाएं होती है उससे अलग हटकर आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायड़ू की इस पहल को माना जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं इस परियोजना की आधारशिला रखने जा रहे हैं। कृष्णा नदी के तट पर आंध्र की नई राजधानी की आधारशिला रखी जाएगी तो ग्रीन एनर्जी का यह प्रोजेक्ट 217 वर्गमीटर को समाये हुए होगा। अमरावती को पूरी तरह ग्रीन एनर्जी युक्त दुनिया का पहला शहर बनाने के लिए 2050 तक की मांग का आकलन कर लिया गया है करीब 2700 मेगावाट विद्युत की आवश्यकता होगी। इसमें स 30 प्रतिशत सोलर और पवन आधारित उर्जा होगी तो 70 प्रतिशत बिजली का उत्पादन पनबिजली आधारित होगी।
ग्रीन एनर्जी के चार प्रमुख स्रोत है। इसमें सूर्य की गर्मी आधारित सोलर ऊर्जा, हवा के झोकों पर आधारित पवन ऊर्जा, जल आधारित पन बिजली परियोजना और भूगर्भ के ताप आधारित भूतापीय ऊर्जा को रिन्यूवल एनर्जी के नाम से जाना जाता है। इसमें प्रमुखता से सोलर, पवन और पन बिजली को लिया जाता है। दरअसल जीवाश्म आधारित उर्जा जिसमें प्रमुखतः कोयला व लिग्नाइट का प्रयोग होता है उसके चलते जलवायु में तेजी से परिवर्तन हुआ है और आज दुनिया के देश तापमान वृद्धि को 1.5 प्रतिशत तक रखने के लिए जूझ रहे हैं। 2 प्रतिषत वृद्धि दर को डेढ प्रतिशत लाना टेड़ी खीर बना हुआ है। पेरिस घोषणा के अनुसार दुनिया के देशों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है अन्यथा जलवायु परिवर्तन के जिस तरह के परिणाम हम आये दिन देखने लगे हैं जिसमें तापमान में बढ़ोतरी, ग्लेशियरों का सिकुड़ना, अनपेक्षित मौसम चक्र कभी तेज गर्मी तो कभी तेज सर्दी और कभी तेज बरसात। आंधी तूफान, जंगलों में दावानल, तूफानों चक्रवातों के नए नए रुप और बार बार आवृति हमारे सामने हैं। समुद्र का जल स्तर बढ़ने से समुद्र किनारे के शहरों के सामने अस्तित्व का संकट आ गया है तो जंगलों के दावानलों का असर आसपास के शहरों खासतौर से अमेरिकी शहरों में देखा जा चुका है। सूखा और बाढ़ आम होती जा रही है तो दवाओं के बेअसर होने और संक्रामक रोगों की बढ़ोतरी सामने हैं। दुनिया के देश खासतौर से मौसम विज्ञानी इन हालातों को लेकर चिंतित है और जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को सीमित करने के उपायों को लेकर प्रयासरत है। हांलाकि इसमें सरकारों की ईच्छा शक्ति, संसाधन, आर्थिक सामाजिक हालात के साथ ही विकसित देशों द्वारा खुले दिल से सहयोग नहीं करना बड़ा कारण बनता जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के संकट से दुनिया के देश सावचेत नहीं हो। बल्कि इस दिशा में किये जा रहे प्रयासों को लेकर रेंकिंग भी जारी होने लगी है। जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन रेकिंग में भारत दसवें स्थान पर है हांलाकि यह इससे पहले के साल की तुलना में रेंकिंग पिछड़ी है। मजे की बात यह है कि हालिया सूचकांक के विश्लेषण से साफ हो जाता है कि आज भी इस सूचकांक को एक से तीन नंबर की रेंकिंग वाले देश की प्रतीक्षा है। रेकिंग में डेनमार्क शीर्ष पर है और उसका चौथे स्थान है। नीदरलैंड, इंग्लेण्ड, फिलिपिन्स, मोरक्को, नार्वे क्रमशः है तो भारत दसवें स्थान पर है। देश में रिन्यूवल एनर्जी की दिशा में ठोस प्रयास हो रहे हैं। गुजरात के कांडला सेज को पूरी तरह से हरित औद्योगिक क्षेत्र बनाया गया है तो तमिलनाडु के महाबलीपुरम के शोर मंदिर को ग्रीन एनर्जी पुरातात्विक स्थल के रुप में पहचान मिल चुकी है। डेनमार्क का कोपेनहेगेन भी इसी श्रेणी में आता है। आस्ट्रेलिया का एडिलेड, कोरिया का सियोल, आइवरकोस्ट का कोकोडी, स्वीडन का मालमो और दक्षिणी अफ्रिका का केपटाउन ग्रीन एनर्जी की दिशा में बढ़ते हुए शहरों में से हैं। गुजरात के कांडला सेज में 1000 एकड में साढ़े तीन लाख पेड़ लगाया गया है। समुद्र के नमक के पानी से प्रभावित क्षेत्र को जलवायु की दृष्टि से करीब करीब बदल ही दिया गया है।

Leave a Reply

Required fields are marked *